"मम्मी ने एक दिन कहा था की वो एक बार रात में उठी थीं तो उन्होंने किसी काली सी औरत को गली में जाते हुए देखा था उसके पीछे भी आयीं मगर वो यहाँ दिखी नही। इसलिए मम्मी किसी को भी रात में उठने से मना करती हैं। मुझे तो भ्रम लगा मगर वो इस बात के लिए काफी सख्त थीं।" भईया ने बताया। दादा जी ने ये बात सुनकर थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गए। मन्नी चाचा की उन्हें याद तो आई मगर वो कानपुर में नहीं थे और हॉस्पिटल भी छोड़ चुके थे।
"मम्मी ने एक दिन कहा था की वो एक बार रात में उठी थीं तो उन्होंने किसी काली सी औरत को
गली में जाते हुए देखा था उसके पीछे भी आयीं मगर वो यहाँ
दिखी नही। इसलिए मम्मी किसी को भी रात में उठने
से मना करती हैं। मुझे तो भ्रम लगा मगर वो इस बात के लिए काफी सख्त थीं।" भईया
ने बताया। दादा जी ने ये बात सुनकर थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गए।
मन्नी चाचा की उन्हें याद तो आई मगर वो कानपुर में नहीं थे और हॉस्पिटल भी छोड़ चुके थे।
फिर उन्होंने भईया से कहा के "तुम्हारे पिता जी
से कुछ कहना तो बेकार ही होगा, तुम एक काम करो किसी कारीगर की तलाश करो जिसका काम अचूक हो।" भईया ने दादा जी
बात में सहमति जताई और अगले दिन ऐसे किसी इंसान को ढूंढने के लिए राज़ी हो गए। फिर उन्होंने
बातों ही बातों में रात गुजारी। और अगले दिन तलाश शुरू कर दी, ये बात घर में सबको बताई गयी। दादा जी के कमरे का पलंग
पहले जिस जगह पर था वहीँ रखवा दिया गया और उन्हें दुबारा वो सपना भी नहीं आया। करीब एक हफ्ते के
बाद उन्हें एक औरत का पता चला जो की कल्याण पुर के पास कहीं पर चौकी लगाती थी।
उसके पास जाकर भईया ने अपने घर की सारी समस्या और सपने के बारे
में बताया।
उस औरत ने कुछ चावल और एक बोतल में पानी दिया और कहा की रात को ये चावल घर में हर जगह हर
कमरे में थोडा थोडा डाल देना और सुबह झाड़ू के साथ इसको भी बहार फेक देना और उसके बाद ये जल घर में
छिड़क देना इससे जो भी सहबला होगी वो चली जाएगी। इस काम के उसने भईया से
आठ सौ रूपए लिए। भईया ने घर आकर जैसा उसने कहा था वेसा ही किया। सारे कमरों में
चावल के दाने छिड़क दिए, दादा जी के कमरे पर उस जगह पर भईया ने विशेष तौर पर वो चावल के दाने
डाले और सब अपनी अपनी जगह पर जाकर सो गए। दादा जी को उस
दिन कोई सपना नहीं आया मगर मौसी ने सपना देखा की वही औरत बाहर की
तरफ से अन्दर को आ रही है और जमीं पर जो चावल पड़ा है उसे अपने पैरो
से किनारे करती जा रही है एस करते करते वो पीछे की तरफ चली गयी और फिर
वापस आई और मौसी को एक नज़र देख कर वापस आगे वाले कमरे में चली गयी।
सुबह उठते ही
मौसी जी ने तुरंत उस रस्ते का जायजा लिया जिधर से वो काली औरत गुजरी थी। मगर
शुक्र था की चावल जेसे डाले गए थे वेसे के वैसे ही पड़े थे वरना ये एक तरह का डरावना
अनुभव हो जाता। उधर अपने कमरे में दादा जी ने उठ कर उस जगह पड़े चावल को देखा जहाँ उस लम्बे चौड़े
आदमी ने किसी को भी लेटने से मना किया था। वहां भी चावल वेसे ही पड़े थे।
मौसी जी ने नाश्ते के वक़्त सबको अपने सपने के बारे में बताया। मौसा जी ने उनकी बातों
को वहम का नाम देकर टाल दिया मगर दादा जी ने ये बात साफ़ कर दी की चावल का
कोई असर नहीं हुआ है उनपर। अब वो जल छिड़का जाए या नहीं उसका कोई
फायदा नहीं होगा। मगर अपने मन की तसल्ली के लिए भईया ने वो जल पुरे घर में
छिड़क दिया। भईया अगले दिन फिर से उस औरत के पास पहुचे। इस बार उसने भईया को कुछ
सामग्री लिख कर दी। जिसे लाने में भईया के पसीने छुट गए मगर एक दो के सिवा बाकी का कोई
सामान नहीं मिला।
भईया दुबारा उसके पास गए और सामान न मिलने की बात कही। इस पर उसने
भईया से २ हजार रूपए ले लिए और खुद ही सामान का बंदोबस्त करने की बात कहकर भईया को
वापस घर भेज दिया। जो सामग्री उस औरत ने लिखवाई थी उससे वो घर में ही कोई क्रिया
करने की बात कर रही थी। खैर भईया उसे पैसे दे आये और अगले दिन घर पर
आने का वक़्त उसने भईया को बता दिया। अगले दिन वो दो आदमियों के साथ भईया के घर पर पहुंची। उन
आदमियों मे से एक उसका पति था और दूसरा कोई रिश्तेदार का लड़का था। भईया ने उन्हें आगे वाले उसी मेहमानों के
कमरे में बैठाया, उन्होंने घर पर पहुँच कर पहले चाय
नाश्ता किया। उसके बाद भईया से पूछा "हमे वो कमरे दिखाओ जिस जिस
में परेशानी है।" "एक तो यही है
जिसमे हम बैठे हैं और दूसरा बगल वाला है।" भईया ने बताया। ये सुनकर वो औरत कमरे को गौर
से देखने लगी मगर उनके साथ आये उन दोनों व्यक्तियों के चेहरे का रंग फीका पड़
गया था। फिर उस औरत ने कहा "कोई बात नहीं सब ठीक हो जायेगा।
एक तसले और कुछ लकड़ियों
का इन्तेजाम करो।" भईया ने इंतजाम कर दिया और उसने तसले में आग जलाई और न जाने कौन कौन सी
जड़ों के नाम बताते हुए कहने लगी की "ये यहाँ नहीं मिलती इसी के
पैसे लिए थे तुमसे।" उसके बाद उस आग में न जाने कौन कौन से मंत्र पढ़ कर सामग्री डालने
लगी। काफी देर तक यही काम किया उसने फिर उसके बाद। खड़े होकर कुछ मंत्र पढ़े और
आग में आहुति देने लगी साथ में वो दोनों व्यक्ति भी आहुति दे रहे थे। करीब आधे घंटे
बाद उसने उन दोनों से कहा की "ये तसला उठा कर इस कमरे में और फिर बगल के कमरे में और फिर
पूरे घर में घुमा दो।" मेहमानों वाले कमरे में तसले को दो तरफ से पकड़ कर दोनों ने
पूरे कमरे में घुमाया उसके बाद वो तलसा उठा कर दादा जी वाले कमरे में ले गए।
और हर कोने में दिखाने लगे, भईया और वो औरत साथ में थे और दरवाज़े पास खड़े होकर उन दोनों को देख रहे थे। जेसे ही वो लोग
तसला घुमाते हुए कमरे के बीचो बीच पहुंचे, दोनों के हाथ से तलसा छूट गया। और आग
नीचे फ़ैल गयी और कुछ अंगारे छिटक कर दोनों के पैर पर आ गिरे। जिससे दोनों
चिल्ला कर उछल पड़े और कमरे से बाहर आकर पास में जग में रखे पानी को अपने पैर
पर डाल लिया। भईया और उस औरत का ध्यान भी उन दोनों की जली टांग पर
था अन्दर फैली उस आग को किसी ने नहीं देखा।
क्योकि उसके आस पास कोई जलने का सामान नहीं था।
जब वो दोनों कुछ शांत हुए तो भईया ने अन्दर जाकर वहां फैली
आग को देखा। आग पूरी तरह से बुझ चुकी थी जेसे की किसी ने पानी
डाल कर बुझाई हो बस थोड़ी थोड़ी गर्मी फर्श पर महसूस हो
रही थी। फिर वो औरत भी अन्दर आई। और कहा की "इस कमरे
में जिस किसी का भी वास है उससे टक्कर लेना ठीक नहीं है। इसलिए
जो परहेज तुम लोग कर रहे हो वो करो तुम्हे कोई नुक्सान नहीं होगा।" "वो तो ठीक है।
लेकिन वो औरत जो बगल के कमरे में दिखती थी?" भईया ने पूछा। "उससे डरने की
जरुरत नहीं। वो तो मेरे आते ही भाग गयी। अब कभी परेशान नहीं
करेगी।" उस औरत ने उत्तर दिया। "अब चलते हैं, दोनों कमरों को
धुलवा देना।" इतना कह कर वो चलने के लिए तैयार हुयी। भईया ने एक टेम्पो बुलवा दिया जिसमे उन दोनों व्यक्तियों
को चढ़ाया और फिर वो लोग चले गए। अन्दर सब इसी इंतज़ार में बैठे थे की भईया कब आएंगे और क्या
खबर लायेंगे?
भईया ने जाकर सबका इंतजार ख़त्म किया और सारी घटना बताई। पहले तो
सबको दादा जी के कमरे वाली और दोनों चोट लगने की बात से थोड़ी चिंता हुयी
मगर फिर सब ने समझौता कर लिया। सोचा की जो भी कोई नुक्सान तो कर नहीं रहा है, और उसने साफ़ साफ़
कह भी दिया था की यहाँ बस कोई लेटे ना बाकी कुछ भी रख
लो। तो फिर वहां कुछ रख ही लिया जायेगा जिसके बढ़ने से घर का फायेदा हो। इस बात से सबको
संतुष्टि हुयी की वो भयानक काली औरत अब वहां नहीं है। और जो सबके मन
में घर बदलने का ख्याल जन्म ले रहा था उसका अंत हो गया। मगर कोई नहीं जनता था की उस औरत ने वहां क्या किया
और उसका क्या प्रभाव हुआ है। एक दो दिन तक तो सब कुछ सामान्य रहा मगर तीसरे दिन की रात की
बात है। मौसी जी को रात में वो औरत फिर से दिखाई दी वो भी कई बार, कभी कमरों में
झांकते हुए तो कभी चेहेल कदमी करते हुए । वो रात में उठी थी तो
उन्होंने उसे वहीँ मेहमानों वाले कमरे में जाते देखा। अगले दिन ये बात उन्होने
भईया को बताई और भईया ने दादा जी को। इस बार दादा जी ने मन्नी चाचा
से मिलने का फैसला कर लिया।
वो जानते थे की वो उस वक़्त कानपुर में नहीं थे मगर
उन्होंने उनके घर जाकर पता लगाना चाहा की वो कहाँ हैं ताकि उन्हें वहां से बुलवा लिया जाए। दादा जी उसी दिन
शाम के वक़्त मन्नी चाचा के घर पहुंचे। वहां उन्हें मन्नी चाचा का
सहायक मिला। जिसका असली नाम तो कुछ और ही था मगर वहां उसे सब साधू कहा
करते थे, उनकी उम्र उस
वक़्त कोई ४५ साल के आस पास रही होगी। उनकी तंत्र मंत्र
में रूचि तो थी मगर कुछ शारीरिक कष्ट के कारण वो मन्नी चाचा जेसा दर्जा नहीं रखते
थे। मगर उनके पास जिनती जानकारी थी वो उसी में खुश रहते थे। दादा जी ने साधू से पहुँच कर कर
मन्नी चाचा के बारे में पूछा। वो उस वक़्त नासिक में थे वहां से वो उज्जैन जाने वाले थे जिससे
उनका ३ हफ्ते तक आना बिलकुल अनिश्चित था। दादा जी ने साधू ने परेशानी पूछी तो
दादा जी ने उन्हें सब कुछ बता दिया। साधू जी ने दादा
जी को बताया की वो ज्यादा बड़ी शक्तियों से तो निपट नहीं सकते मगर
छोटे मोटे को तो लपेट ही सकते हैं। इस बात पर दादा जी ने उनसे घर आने का आग्रह किया, बात काफी विचित्र
थी और मन्नी चाचा के अच्छे दोस्त होने की वजह से उन्होंने
घर आना स्वीकार कर लिया।
उन्होंने अगले दिन घर आने के लिए कह दिया। दुसरे दिन साधू
जी दादा जी के घर करीब ग्यारह बजे पहुँच गए, कई सारी तंत्र मालाएं पहनी हुयी थी उन्होंने। पहले
अन्दर के कमरे में चाय पानी के साथ इधर उधर की बातें की उसके बाद दादा जी से कहा की
मुझे दोनों कमरे दिखाईये मगर कोई और ना आये हमारे सिवा। दादा जी उन्हें ले गए और उन्होंने
साधू जी को पहले अपना कमरा दिखाया। वहां पहुच कर साधू जी ने पहले कुछ मंत्र बुदबुदाया और फिर
उसके बाद इधर उधर कमरे देखने लगे। देखते देखते वो आगे बढे और वहीँ पहुँच कर रुक गए जहाँ दादा जी का
पलंग लगाने पर उन्हें सपने आने लगे थे। उन्होंने वहां कुछ गौर से देखा और फिर हाथ जोड़ कर वहीँ पर बैठ गए।
कुछ देर बैठने के बाद वहां से उठ गए और कमरे से बाहर आ गए। बाहर आकर
उन्होंने दादा जी से कहा की "जेसा चल रहा है
चलने दो, वहां कोई भी चीज़ रखोगे वो
बढ़ेगी। वहां जिसका वास है उससे जीत पाना तो मेरे क्या मन्नी जेसे अघोरी के बस के
बाहर है। और उसे गुस्सा दिलाने से कुछ नहीं होगा। इस कमरे में हमेशा इसी तरह अचे से साफ़
सफाई रखना और भूल से भी उस जगह किसी को लेटने मत देना, वरना चेतावनी तो तुम्हे मिल ही चुकी है।" दादा जी ने उनकी
बात पर सहमति जताई। और फिर वो लोग बढ़ गए दुसरे कमरे की तरफ।
उस कमरे को दादा
जी ने खोला और दादा जी से पहले साधू जी अन्दर चले गए। और उन्होंने दादा जी को बाहर ही
रोक दिया। अन्दर जाकर उन्होने अपने मुंह और नाक पर कपडा रख लिया जेसे की उन्हें बदबू आ
रही हो। कुछ देर अन्दर कमरे में रुके उसके बाद फिर बाहर आ गए। "उन्होंने कहा
यहाँ पर तो काफी बड़ी मुसीबत है बेहतर होगा की आप उससे बात कर
लें।" साधू जी ने दादा जी से कहा। "लेकिन में कैसे बात कर सकता हूँ? मैं तो कोई
तांत्रिक या कारीगर नहीं।" दादा जी ने परेशान होकर कहा। साधू जी दुबारा
अन्दर देखने लगे। जेसे किसी को ध्यान से सुन रहे हो। उसके बाद दादा जी बोले
"नहीं, तुमसे नहीं वो किसी औरत से ही
बात करेगी।" "क्या ये जरुरी
हैं?" दादा जी ने पूछा। "हाँ, पहले नहीं था मगर
मुझसे पहले जो यहाँ औरत आई थी उसकी वजह से ये जरुरी हो गया
है।" साधू जी ने कहा। दादा जी उनकी बात ध्यान से सुन रहे थे। फिर दादा जी ने
कहा की "वो तो ठहरी एक आत्मा उससे बात करने की हिम्मत कौन करेगा? अगर उसने कुछ
नुक्सान पहुँचाया तो?" "तुम्हारी
बहु(मेरी मौसी जी), वो उन्हें कई बार दिखी है। अगर वो बात करने को राज़ी
हो गयीं तो ये समस्या सुलझ सकती है। मगर ध्यान रहे ये यहाँ से नही जाएगी लेकिन
बात करके हल जरुर निकल जा सकता है।"
साधू जी ने ऐसा कहते कहते अपने गले से एक
माला निकाली और दादा जी को देते हुए कहा "ये माला बहु से कहना पहन कर रात को
जिस वक़्त वो दिखाई दे, उसके पीछे यहाँ इस कमरे तक आ जाये। फिर उससे
बात कर ले। मगर उसके सिवा और कोई न हो। जब तक ये माला उसके गले में हैं। उसका कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता।"
उन्होंने दादा जी बात समझा दी। "लेकिन पता नहीं
बहु मानेगी या नहीं..." दादा जी कह ही रहे थे की साधू
जी ने बात बीच में काट दी और बोले "बिलकुल मानेगी।
वो जब उसे देख कर डरी नहीं तो फिर इस काम में भी नहीं डरेगी और
फिर ये समस्या का समाधान ही है। उसके सिवा तुम्हारे घर की कोई भी स्त्री ये काम
नहीं कर पायेगी।" दादा जी की बात समझ में आ गयी मगर मन में
शंका और चिंता दोनों ने घर बना लिया था। उसके बाद दादा जी साधू को वहीँ छोड़ कर मौसी जी के पास
गए और उनसे ये सारी बात की। मौसी जी ने इस बात को स्वीकार कर लिया और माला ले ली। बाहर जाकर दादा
जी ने साधू जी को विदा किया और अगले दिन माला वापस उन्ही के पास पहुँचाने की बात कही। घर
में ये बात और किसी को नहीं बताई गयी थी और रात को
सबको सख्त हिदायत दी गयी की चाहे कोई भी बुलाये या कुछ भी आवाज़ आये
कोई भी अपने कमरे से बाहर नहीं निकलेगा।
मौसी जी रात को
उस वक़्त के इंतज़ार में थे की कब वो दिखाई देगी। ये सोचते सोचते उन्हें नींद आ
गयी। रात के करीब पौने दो बजे का वक़्त था उनकी नींद थोड़ी सी खुली उन्होंने
वक़्त देखा और फिर पास रखी बोतल से पानी पिया। उसके बाद लेट कर खिड़की से बाहर
गली में देखने लगी। अचानक उन्हें गलियारे में कोई परछाई सी दिखाई दी।
उन्होंने तुरंत माला उठाया और पहन लिया। और कमल गट्टे की उस माला को हाथ से पकड़ कर दबे पाँव, धीरे धीरे बाहर की तरफ मेहमानों
वाले कमरे में जाने लगी। दुसरे वाले कमरे का दरवाज़ा खुला था। मौसी जी ने देखा की
दादा जी भी जाग रहे थे, उन्हें देख कर मौसी जी को थोड़ी राहत महसूस हुयी और उन्होंने
माला से अपना हाथ हटा लिया और उस कमरे में चली गयीं। आगे मौसी जी ने
बताया था की जब वो उस कमरे में गयीं तो उन्होंने देखा की एक जली हुयी सी औरत उस कमरे
की फर्श पर लेटी हुयी थी, खाल जल कर लटकी हुयी थी और हल्का हल्का खून बह रहा
था उसके पूरे जिस्म से। मौसी को देखते ही वो उठ कर बैठ गयी। मौसी जी को ये सब
कुछ सपने की तरह लग रहा था। उस कमरे में मांस जलने की बदबू भरी पड़ी थी। "कौन हो तुम?" मौसी ने पूछा। "नाज़।" उसने
जवाब दिया। उसके लहजे से ही मौसी को लगा की वो गुस्से में है। "यहाँ क्या कर रही
हो?" मौसी ने पूछा। "इंतज़ार।"
उसने जवाब दिया। "किसका?" मौसी ने पूछा। "इंतजार-ए
-इंतकाम।"
उसने थोडा गुर्रा के कहा। मौसी जी को थोडा डर
महसूस हुआ और उनका हाथ माला पर चला गया। "कैसा इंतकाम?" मौसी ने डरते हुए
पूछा। "उन चारों
से।" उसने जवाब दिया। मौसी और डर गयीं उनके भी चार बेटे है। कहीं वो इनसे तो
कुछ नहीं चाहती। "कौन चार?" मौसी ने पूछा। "जिन्होंने मेरी
ये हालत की है।" अब उसने थोडा दुखी होकर कहा। "किसने की
तुम्हारी ये हालत?" मौसी ने पूछा। "वो चार हैवान।
मुझे मेरे घर से उठा लाये। मेरी आबरू को तार तार कर दिया, और उसके बाद मुझे जला कर यूँ ही आजतक जलता हुआ
छोड़ दिया।" उसकी आवाज़ से लगा की वो रो रही है मगर मौसी जी को उसके
जले चेहरे पर कोई आंसू नहीं दिखे मगर उसे देख कर दुःख जरुर हुआ। "बहुत बुरा हुआ
तुम्हारे साथ। वो लोग अब कहाँ हैं?" मौसी ने पूछा। "बगल वाला कहता है, वो लोग कुछ साल
बाद आएंगे। दुबारा पैदा होकर। तभी में उनसे इंतकाम लुंगी। मैं बहुत चिल्लाई थी
मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी थी, अब वो चिल्लायेंगे और सबको अपने कान बंद
रखने होंगे।" उसने कहा और रोने लगी। मौसी को उस पर बहुत दया आ रही थी, उन्होंने अपना
हाथ भी माला से हटा लिया था। "बगल वाले" से उसका आशय मौसी जी समझ गयी थी। "बगल वाले ने
तुम्हे बचाया नहीं?" मौसी ने पूछा।
"उस वक़्त वो यहाँ
नहीं थे, वरना उनकी इतनी जुर्रत न
होती। बाद में वो आये, उन्होंने रहम
करके मुझे यहाँ पनाह दी है। वो ही मेरे अब तक मददगार रहे हैं। वही इंतकाम में भी
मेरी मदद करेंगे।" उसने जवाब दिया। "तुम कहाँ से हो? तुम्हारा घर कहाँ
था?" मौसी ने पूछा। "अब मुझे कुछ याद
नहीं, बस उनकी शक्ल याद है।
उनकी रूह तक को पहचान लुंगी मैं।" उसने फिर से गुस्सा सा दिखाया। मगर मौसी उससे फिर भी
सहज रूप से बात कर रही थी। "तुम्हारे साथ
इतनी बेरहमी हुयी किसी ने देखा नहीं? या बचाया नहीं?" मौसी ने पूछा। "उस वक़्त यहाँ
इंसान का बसेरा नहीं था, ये जगह विराना था।" उसने बताया। मौसी को अचनाक अपने परिवार की याद आई और वो
उसकी बातों और भावनाओ से बाहर आयीं। "तुम्हे देख कर
मेरे परिवार को डर लगता है। तुम यहाँ वहां क्यों डराती हो सबको?" मौसी ने पूछा। "वो मेरे निकलने
का वक़्त है। अफताब (सूरज) की रौशनी में इंसान निकलते हैं। मैं तुम्हारे वक़्त में नहीं निकलती तो
तुम मेरे वक़्त में क्यों निकलती हो। निकलोगी तो सामना होगा ही।" उसने
अपनी बात रखी जिसकी कोई काट नहीं थी। "मेरे परिवार पर
दया करो। उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?" मौसी ने हाथ जोड़
कर उससे कहा। "मैंने भी तो
तुम्हारे परिवार का कुछ नहीं बिगाड़ा। वो (औरत) आई थी मुझे जलाने बस उसका बिगाड़ा हैं।
वो भूल गयी
की जली हुयी दुबारा नहीं जलेगी। और तुम बस मेरे वक़्त
में मत निकालो वरना मुझे यहीं पाओगी। और मुझे तो बस उन चारो का ही बिगाड़ना है वो भी
सब कुछ।" वो फिर अपनी ही बात में मौसी को ले जाने लगी। "कब तक यहाँ ऐसे
ही भटकोगी? क्या करोगी यहाँ सालों
भटककर?" मौसी ने पूछा। उसने नीचे फर्श
की और सर कर लिया और कहा "इंतजार -ए-इंतकाम"। इतना कह कर वो
धीरे धीरे धुंधली हो गयी और फिर गायब हो गयी। वहां फैली
वो जलने की बदबू भी समाप्त हो गयी। बाहर निकल कर
मौसी ने देखा तो दादा जी भी सो गए थे। उसके बाद मौसी बताती हैं की
उन्हें कुछ याद नहीं की वो अपने कमरे तक कैसे पहुंची? सुबह उठ कर उन्होंने देखा तो वो माला वहीँ टंगी थी जहाँ
उन्होंने रात को सोने से पहले टांगा था। और दादा जी पूछा तो उन्होंने कहा की वो तो रात भर
सोये उन्होंने देखा तक नहीं की मौसी कब उस कमरे में गयी थी।
पानी की बोतल में पानी
भी उतना ही था। वो सिर्फ एक सपना था जो मौसी ने देखा था। अगले दिन दादा जी
के जाने से पहले साधू जी खुद आ गए। उन्होंने सारी घटना सुनी और कहा
"इसी मुलाकातें इसी तरह अक्सर होती हैं ताकि तुम्हे डर न लगे। और
उसने सही कहा था, अगर कोई आत्मा तुम्हारे समय में बाहर नहीं निकलती तो तुम भी
उनके समय में बाहर मत निकलो। दिन इंसानों के लिए हैं और रात आत्माओ के
लिए।" लेकिन नाज़ पर दया करके उन्होंने फिर कभी किसी तांत्रिक से
उसे नुक्सान नहीं पहुंचवाया। और करीब एक साल बाद वो घर बदल दिया। तब तक उन्होंने
सख्त परहेज रखा रात को उठने और उससे सामना होने से। धन्यवाद।
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