इंसान की हैवानियत

इंसान की हैवानियत पर भारी भूतनी की इंसानियत आज विज्ञान-विज्ञान का शोर है। विज्ञान तरक्की पर तरक्की किए जा रहा है। यह बहुत ही अच्छी बात है। विज्ञान की छत्र-छाया में बहुत सारे रहस्यों से परदे उठ रहे हैंहमें लगने लगा है कि हम सभ्यता की नई कहानी लिखने जा रहे हैं। 

इंसान की हैवानियत
Photo by Aimee Vogelsang on Unsplash



इंसान की हैवानियत



भूतही कहानी - इंसान की हैवानियत पर भारी भूतनी की इंसानियत आज विज्ञान-विज्ञान का शोर है। विज्ञान तरक्की पर तरक्की किए जा रहा है। यह बहुत ही अच्छी बात है। विज्ञान की छत्र-छाया में बहुत सारे रहस्यों से परदे उठ रहे हैं, हमें लगने लगा है कि हम सभ्यता की नई कहानी लिखने जा रहे हैं। 


विज्ञान समाज को एक ऐसी तरफ ले जा रहा है, जिधर समाज को सिर्फ विकास ही विकास, सुख-सुविधा संपन्न संसार ही नजर आ रहा है। पर विज्ञान की इस तरक्की को हम केवल दिमाग से देखने लगे हैं और अपनी आँखें और कान बंद करके किन्ही और बातों पर ध्यान देना पसंद नहीं करते चाहें भले व अपने मन की, दिमाग की ही उपज क्यों न हो ? आज विज्ञान काफी अच्छा कर रहा है पर कहीं न कहीं विज्ञान की इस तरक्की में मानवता, भावुकता दबी-कुचली सी नजर आने लगी है। 


लोग अपने दिल व दिमाग की न सुनकर विज्ञान की सुनने की आदत पालने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि अगर हम अपने मन की, दिल की, अपने बाप-दादों की, पारंपरिकता की बातों पर ध्यान देंगे तो गँवार कहलाएंगे और विज्ञान की दौड़ में पीछे छूट जाएंगे। आप विज्ञान के साथ आगे बढ़ते रहिए पर अपने मन-मस्तिष्क को भी साथ लेकर चलिए तथा साथ ही अपनी पारंपरिकता पर भी विचार कीजिए, अगर उसमें कुछ अपनाने वाला है तो उसे अपनाने से परहेज मत कीजिए, बाप- दादा की बातों पर भी विचार कीजिए, हाँ आप भले विज्ञान की दृष्टि से ही सोचिए। अभी भी बहुत सारे ऐसे रहस्य हैं जो विज्ञान की तरक्की पर प्रश्नचिह्न लगाते नजर आते हैं। 


विज्ञान इन रहस्यों के आगे बौना नजर आता है। लाख कोशिश के बावजूद वह कुछ रहस्यों पर तो अपनी अवैज्ञानिक बातों को ही थोपकर अपनी वैज्ञानिकता सिद्ध करना चाहता है, एकदम से किसी माफिया की तरह। मैं भी कहाँ विज्ञान में फँस गया, ऐसा नहीं है कि मैं विज्ञान को तवज्जो नहीं देता, देता हूँ पर एक सीमा तक, जहाँ तक मेरा मन व मस्तिष्क गवाही देता है, वहीं तक। अरे भगवान ने मुझे भी दिल दिया है, दिमाग दिया है, विवेक दिया है तो मुझे भी हक है इनका प्रयोग करने का। 

केवल विज्ञान-विज्ञान न रटते हुए अपनी पारंपरिक बातों, बाप-दादा की बातों पर मनन करने का, उनकी अच्छाइयों को अपनाने का। विज्ञान की चक्कर में कम से कम हृदयहीन तो न बनिए, दया, करुणा को दूर तो न कीजिए, जीवन के लिए विज्ञान से भी आवश्यक दया, करूणा है, भावुकता है। अगर समाज को, देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है तो विज्ञान का उपयोग दिल व दिमाग से करना बहुत जरूरी है। 


हमें विज्ञान का नौकर नहीं बनना है अपितु इसका स्वामी बनकर इस पर नियंत्रण रखना है ताकि यह हमें जीवन से ही दूर न लेकर चला जाए, हमें पाषाण हृदय न बना दे। खैर मुझे तो आप लोगों को एक भूतिहा कहानी सुनानी थी, और मैं लग गया विज्ञान में। हिमालय की तराई में एक बहुत खूबसूरत गाँव था। 


इसी गाँव में रमेसर जी रहते थे। रमेसर जी का गाँव में बहुत सम्मान था। वे गाँव में ही अध्यापक थे और गाँव-जवार के बच्चों को अच्छी शिक्षा देते थे। रमेसर जी विवाहित तो थे पर एक लंबी बीमारी के बाद उनकी बीबी का देहांत हो चुका था। उन्होंने अपनी बीबी को बचाने के लिए देश के कई नामी-गिरामी अस्पतालों के चक्कर लगाए थे पर विधि का विधान कौन टाल सकता है




रमेसरजी के साथ अगर कोई रहने वाला था तो उनकी 15 वर्षीय पुत्री राधिका। राधिका रमेसरजी का खूब ख्याल रखती थी और रमेसरजी राधिका का। राधिका देखने में बहुत ही सुंदर थी और चालाक होने के साथ बातूनी भी। गाँव के सभी लोग भी उसे बहुत प्यार करते थे और शायद इसका यह भी कारण था कि बचपन में उसकी माँ गुजर गई थी। एक बार की बात है कि जड़ी-बूटियों पर शोध करने के लिए एक महाविद्यालय के 5 छात्र आए हुए थे और इसी गाँव में ठहरे हुए थे। 


उन्हें कहीं से पता चला था कि रमेसर जी एक अच्छे इंसान होने के साथ ही जड़ी-बूटियों की भी काफी जानकारी रखते हैं और आवश्यक होने पर जड़ी-बूटी से छोटी-मोटी बीमारी का इलाज भी कर देते हैं। ये पाँचों छात्र दिन में हिमालय पर निकल जाते और कुछ जड़ी-बूटियों को लेकर दिन डूबने के पहले वापस आ जाते। कभी-कभी ये छात्र शाम को रमेसरजी के साथ बैठकर इन जड़ी-बूटियों को दिखाते और उनकी जानकारी, ज्ञान, अनुभव का भी लाभ उठाते। रमेसर जी को भी जितनी जानकारी होती, प्रसन्नता पूर्वक बताते। राधिका भी इन पाँचों छात्रों के साथ खूब घूलमिल गई थी और इन पाँचों को भइया-भइया कह कर पुकारती थी। छात्र भी राधिका को बहन जैसी प्यार जताते। 


यौवन की खूबसूरती अच्छे-अच्छों की आँख पर परदा डाल देती है, इंसान को हैवान बना देती है। इन पाँच छात्रों में खमेसर नाम का एक छात्र था, वह थोड़ा दुष्ट प्रकृति का था। धीरे-धीरे उस पर शैतानियत हावी होने लगी थी और वह राधिका पर बुरी नजरें रखना शुरू कर दिया था। एक बार की बात है कि रमेसरजी ने एक रात इन पाँचों छात्रों को अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किए। 


पाँचों छात्र जब आ गए और रमेसरजी के साथ बैठकर बातचीत करने लगे तो खमेसर ने कहा कि तुम लोग रमेसर अंकल के साथ बात करो तबतक मैं राधिका को भोजन बनाने में सहायता करता हूँ और इतना कहते हुए वह राधिका की सहायता के लिए रसोईघर में चला गया। रसोई घर में जाकर उसने अपनत्व के साथ भोजन बनाने में राधिका की सहायता करने लगा। भोजन बनकर तैयार हो गया। 


इधर खमेसर ने राधिका से छिपाकर भोजन में कुछ जहरीला पदार्थ मिला दिया था। जब सब लोगों के लिए भोजन परोसा जाने लगा तो खमेसर ने कहा कि आप लोग जीम लीजिए, मैं तो राधिका बहन के साथ आप लोगों को खिलाने के बाद ही खाऊंगा। सब लोग हँसते हुए जीमने बैठे। अरे यह क्या, भोजन का पहला कौर ग्रहण करने के साथ ही चार छात्रों के साथ ही रमेसरजी भी लुढ़क गए। राधिका को कुछ समझ में आता इससे पहले ही खमेसर ने एक छोटी सुई निकाली और राधिका के बाँह में दे मारी। अब तो राधिका भी बेहोसी की मुद्रा में चली गई। खमेसर की दिमाग में क्या चल रहा था, शायद उसे जान पाना मुश्किल था। अब खमेसर ने क्या किया कि एक-एक छात्र को और उसके बाद रमेसरजी को पीठ पर लादकर उस रात के अंधेरे में पर्वत की ओर ले जाकर कुछ इस प्रकार से उनका हाल किया कि अगर किसी के नजर में भी आए तो लगे कि जंगली, पर्वती जानवरों ने इनका यह हाल किया है। 


उसके बाद वह वापस राधिका को भी उठाकर पर्वत की ओर चढ़ना शुरू किया। पता नहीं वह क्या चाहता था ? पर्वत पर कुछ ऊँचाई पर जहाँ से गाँव भी काफी दूर था और रात को वहाँ किसी गाँव वाले का पहुँच पाना भी संभव नहीं था, ना ही किसी की आवाज ही वहाँ पहुँच सकती थी, ऐसी जगह पर पता नहीं खमेसर कब का पर्वतीय पेड़-पत्तियों से एक छोटी सी मड़ई डाल रखी थी। शायद उसने दिन में ही यह सब किया था। उसने उस मड़ई में आराम से राधिका को लिटा दिया। 


राधिका को लेटाने के बाद उसने अपनी जेब से फिर एक सुई निकाली और राधिका को लगा दिया। अरे यह क्या, इस सुई ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते राधिका उठ बैठी। साथ ही यह भी अजीब बात थी कि उस दवा में ऐसा क्या था कि राधिका सब बातों से बेखबर खमेसर के कहे अनुसार बर्ताव करने लगी और उसकी शैतानियत में साथ देने लगी। उस समय राधिका को देखकर शायद किसी को भ्रम हो सकता था कि राधिका भी खमेसर को चाहती थी, पर सच्चाई यह थी कि यह सब दवा का असर था। इसके बाद खमेसर उस मड़ई के कोने में पड़े एक पुराने झोले में से वाइन की एक छोटी बोतल तथा दो गिलास निकालकर पैग बनाया। 



कुटिल मुस्कान के साथ एक पैग राधिका की ओर बढ़ाते हुए बोला कि ले राधिका ले, आज की रात सबसे खूबसूरत रात है, हमारे लिए। राधिका ने भी मदहोश आँखों के साथ गिलास अपने हाथ में ले ली। इसके बाद खमेसर पैग लेने के साथ ही राधिका से कामुकता भरी बातें करने लगा और राधिका भी बिन बोले उसका साथ देने लगी। खमेसर रह- रहकर राधिका को अपनी बाँहों में भरने भी लगा था। 10-15 मिनट तक बातों ही बातों में खेलने के बाद अचानक खमेसर शैतान की तरह राधिका पर टूट पड़ा, वह राधिका को नोच डालना चाहता था, तभी ऐसा लगा कि एक डरावनी बिजली कड़की जो उस मड़ई को जलाकर राख कर देगी। इस कड़कती-चमकती बिजली के साथ ही उस मड़ई में एक अद्भुत प्रकाश भर गया। इस प्रकाश में खमेसर की आँखें चुंधियांने लगीं। 


मदहोश रमेसर ने जब आँखें खोलकर सामने देखा तो एक विकराल, भयावह छाया उसे दिखी। वह किसी चामुंडा की तरह लग रही थी, बहुत ही बड़े-बड़े लिपटे बाल, बड़े-बड़े हाथ और उनमें भालों जैसे नख। अब तो खमेसर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। उस छाया ने आगे बढ़कर राधिका के ऊपर हाथ फेरा और देखते ही देखते राधिका फिर से बेहोशी की मुद्रा में चली गई। अब तो छाया ने अपना और भी विकराल रूप बना लिया, ऐसा रूप जिसे देखकर अच्छों-अच्छों की धोती गीली हो जाए, प्राण-पखेरू उड़ जाएँ। 


छाया ने आगे बढ़कर एक हाथ से खमेसर का गरदन पकड़ लिया था और चिल्लाए जा रही थी। तूँ इस लड़की की इज्जत से खेलेगा, इसके बाद डरावनी हँसी हँसते हुए उस छाया ने कहा कि अब तो मैं तेरी इज्जत से खेलूंगी। इसके बाद वह छाया अजीब- अजीब रूप बनाकर खमेसर के साथ कुछ ऐसा करने लगी कि रमेसर एक असहनीय पीड़ा से तड़प उठा। उसकी आत्मा भी काँपने लगी, ऐसा लगने लगा कि वह मर ही जाए तो अच्छा पर मर भी तो नहीं रहा था। फिर वह छाया चिल्लाई, “ आज से 25-30 वर्ष पहले तेरे जैसा ही एक हैवान इसी पर्वत पर, इसी गाँव में आया था। 


बताया था कि प्रोफेसर है और जड़ी-बूटियों पर शोध करने आया है। वह मेरे गाँव में महीनों रह गया। धीरे-धीरे मैं उसके काफी करीब आ गई थी और हम दोनों एक दूसरे को चाहने लगे थे और मैं उसके साथ कभी-कभी इस पर्वत पर भी आती और उसके शोध में मदद करती पर मैं मूरख उसको समझ नहीं पाई, वह भेड़िया था भेड़िया। एक शाम वह मुझे लेकर इस पर्वत पर आया, मुझे क्या पता कि उसके दिमाग में हैवानियत भरी हुई है। पर्वत पर लाकर इसी तरह से उसने भी इसी तरह से बनाई मड़ई में मेरी अस्मत से खेलना चाहा। मैंने उससे कहा कि शादी के पहले हम ऐसी हरकत कत्तई नहीं कर सकते। 


इसके बाद उसने जोर-जबरदस्ती की और पता नहीं मुझे कैसा इंजेक्सन लगा दिया कि मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई, इसके बाद मेरी अस्मत से घिनौनी खेल खेलने के बाद उसने मुझे बेदर्दी से मार दिया और ऐसी जगह पर फेंक दिया जहाँ से मुझे कोई खोज न पाए। ” इतना कहने के बाद वह छाया अति करुण होकर रोने लगी थी। रोते ही रोते पता नहीं उस छाया को फिर क्या सूझी कि वह हँस पड़ी और देखते ही देखते अपने भाले जैसे नाखूनों से खमेसर को चिरकर रख दिया और भयंकर रूप बनाकर उसके रक्त को पीते हुए अट्टहास करने लगी। इसी दौरान पता नहीं कब से राधिका भी होश में आ गई थी और उस मड़ई में जो भी चल रहा था, डरी-सहमी देख-सुन रही थी। 



खमेसर का रक्त पीने के बाद धीरे-धीरे उस छाया की बिकरालता शांत हुई, वह राधिका की तरफ बढ़कर बोली, उठ बेटी, उठ। जबतक इस पर्वत पर मैं रहूँगी, मेरे गाँव क्या, आसपास के गाँवों की भी किसी भी बहू- बेटी की इज्जत से कोई दरिंदा खिलवाड़ नहीं कर पाएगा। इसके बाद छाया के इशारे से राधिका धीरे-धीरे उसके पीछे चल पड़ी। छाया ने रास्ते में उसे एक जड़ी उखाड़ने का इशारा किया और फिर राधिका को लेकर उसके पिता और उन चार छात्रों के पास पहुँची। 


उस छाया के आस-पास प्रकाश बना हुआ था। अपने पिता को देखते ही राधिका रो पड़ी पर छाया ने कहा कि बेटी देर मत कर जल्द से जल्द इस जड़ी को इन पाँचों को सूँघा नहीं तो देर हो गई तो इनका बचना मुश्किल हो जाएगा। जड़ी सूँघते ही पाँचों उठ बैठे। उनके उठ बैठते ही छाया गायब हो गई, फिर सब गाँव वापस आए। रमेसरजी ने राधिका से पूरी कहानी सुनने के बाद उस छाया को नमन किया तथा साथ ही उन चार छात्रों से कहा कि कल हम लोग उस जड़ी की तलाश में पर्वत पर चलेंगे जो रात को राधिका ने हमें सुंघाया था। छात्रों ने पूछा कि वह कौन सी जड़ी थी, इस पर थोड़ा गंभीर होकर पर मुस्कुराते हुए रमेसरजी ने कहा था कि वह संजीवनी जैसी जड़ी थी जो मुर्दों में भी जान डाल दे। 


जय बजरंग बली। कहानी कैसी लगी, अवश्य बताएँ तथा साथ ही मानवता को बनाए रखें, ऐसा कार्य कदापि न करें, जैसा अगर आप के साथ, आप के अपनों के साथ हो तो आपको बुरा लगे।  जय हिंद।  - पंडित प्रभाकर पांडेय गोपालपुरिया.  

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